जनपद देहरादून की सड़कों पर अगर आपको खनन सामग्री से भरे ट्रक व ट्रैक्टर दिखे तो इसको कोई आम बात न समझा जाए। नदी से घर तक खनन सामग्री पहुंचाने में जितनी मेहनत एक ड्राइवर, हेल्पर व मजदूर करता है उतनी ही मेहनत उस क्षेत्र के थाना प्रभारी व बीट अधिकारी की भी होती है।
आप उपर्युक्त लिखित वाक्य को गलत अर्थ में न लें कहना का तात्पर्य है जितनी मेहनत ड्राइवर, हेल्पर व मजदूर ओवरलोड अवैध खनन को बेचने में करता है उतनी ही मेहनत उक्त क्षेत्र का थाना प्रभारी व बीट अधिकारी इसको रोकने में करता है। लेकिन अधिकतर इस चूहे बिल्ली की दौड़ में चूहा कैसे जीत जाता है यह सोचनीय विषय है।
बता दें कि जिस खनन सामग्री को देहरादून वासी सिर्फ इस उद्देश्य से खरीद रहे हैं कि इससे वे अपने घर व इमारतें बनाएंगे, पर न जाने भी वह ऐसा कर पता नहीं कितने लोगों के घर पाल रहे हैं।
जी हाँ वह ऐसे कि मोटे फायदे के लालच में ट्रांपोटेर या डीलर वाहनों को अवैध खनन से ओवरलोड कर फुटकर डीलरों तक इसको पंहुचाता है। लेकिन इस सब के बीच एक परेशानी का सामना उसको हर रोज करना होता है वह है पुलिस का बैरियर।
अब यह ओवरलोडेड अवैध खनन से भरे ट्रक या ट्रॉली कैसे हर रोज अदृश्य होकर या फिर किसी अन्य जादुई तरीके से बैरियर पार करते हैं यह सोचने व समझने का कार्य हम अपने पाठकों पर छोड़ते हैं।
जिन स्थानों पर खनन माफिया नदी में सीधा ही जेसीबी उतार कर नदी का सीना चीर देते हैं उन क्षेत्र के ईमानदार व कर्मठ कोतवाल / थाना प्रभारियों के क्या ही कहने। हक्कीत मानो तो बेचारे वह खुद भी इन घटनाक्रमों से परेशान हैं। जब तक वह थकी हारी सरकारी जिप्सी को स्टार्ट करते हैं इतने में माफिया फुर्र भी हो जाते हैं। ऊपर से कुछ बेचारे तो पुलिस फोर्स की कमी का उल्लेख कर पल्ला भी झाड़ देते हैं।
खैर एक आम आदमी को क्या ही लेना देना कि उत्तराखंड का पुलिसिया तंत्र कैसे चलता है चाहे शराब की ओवर रेटिंग हो या अवैध खनन की ओवरलोडिंग, वह बेचारा आज भी यही मानता है कि इन सबके बारे में पुलिस को नहीं पता।
अब इसको मजबूरी कहा जाए या मजदूरी लेकिन यह तय है कि दिन पर दिन खत्म होता जा रहा है खाकी, लाठी व वर्दी का वर्चस्व/ख़ौफ़।
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